एक नारी की हँसी
बचपन में खिलखिला के ही हँसा करती थी वो....बड़ी होते-होते दुनिया ने दुनियादारी सिखा दी।
आज कहते हैं दुनिया बदल गई,
किसके सामने, कब, कितना ?
सब नाप-तौल के हंसना पड़ता है।
पहले हँसी बस हँसी हुआ करती थी,
आज तो इसके कई नाम हैं।
कभी बस मुस्कुराना,कभी झूठी हँसी,
कहीं बनावटी भी हँसना पड़ता है।
खिलखिलाना बिसरा है उसके लिए,
मन की हँसी तो गुम सी हुई,
और लोग कहते हैं कि,
ठहाके तो नारी के लिए अशोभनीय हैं,
तो बस.…
दबी हँसी से ही काम चलाना पड़ता है।
(स्वरचित) dj कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google
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